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गणेशशंकर ''विद्यार्थी''
गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था जो हथगाँव, (फतेहपुर, उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। उनके पिता एक गरीब और धार्मिक प्रवित्ति पर अपने उसूलों के पक्के इंसान थे। वे ग्वालियर रियासत में मुंगावली के एक स्कूल में हेडमास्टर थे। गणेश का बाल्यकाल वहीँ बीता तथा प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी हुई। उनकी पढ़ाई की शुरुआत उर्दू से हुई और 1905 ई. में उन्होंने भेलसा से अँगरेजी मिडिल परीक्षा पास की। उन्होंने सन 1907 में प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में एंट्रेंस परीक्षा पास की और आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला में दाखिला लिया। लगभग इसी समय से उनका झुकाव पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और प्रसिद्द लेखक पंडित सुन्दर लाल के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ के संपादन में सहायता करने लगे। आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण लगभग एक वर्ष तक अध्ययन के बाद सन 1908 में उन्होंने कानपुर के करेंसी आफिस में 30 रु. महीने की नौकरी की पर एक अंग्रेज अधिकारी से कहा-सुनी हो जाने के कारण नौकरी छोड़ कानपुर के पृथ्वीनाथ हाई स्कूल में सन 1910 तक अध्यापन का कार्य किया। इसी दौरान उन्होंने सरस्वती, कर्मयोगी, स्वराज्य (उर्दू) तथा हितवार्ता जैसे प्रकाशनों में लेख लिखे। 25 मार्च 1931 में कानपुर में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए जिसमें हजारों लोग मारे गए। गणेश शंकर विद्यार्थी ने आतंकियों के बीच जाकर हजारों लोगों को बचाया पर खुद एक ऐसी ही हिंसक भीड़ में फंस गए जिसने उनकी बेरहमी से हत्या कर दी। एक ऐसा मसीहा जिसने हजारों लोगों की जाने बचायी थी खुद धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ गया।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण
जय प्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्टूबर सन 1903 में बिहार के तात्कालिक सारण जिले के सिताबदियारा में हुआ था. इनका घर लाला टोला के घाघरा नदी के किनारे पर स्थित था, जहाँ पर आये दिन बाढ़ आते रहते हैं. इस वजह से इनका घर आये दिन किसी न किसी तरह से बाढ़ से प्रभावित होता है. इस वजह से बचपन में ही इनका परिवार इस स्थान से हट कर कहीं कुछ किलोमीटर आगे चला गया, यह तात्कालिक स्थान अब उत्तरप्रदेश में पड़ता है. इनका जन्म एक कायस्थ परिवार में हुआ था. इनके पिता का नाम हरशु दयाला और माता का नाम फूल रानी देवी था i इनके पिता स्टेट गवर्नमेंट के कैनल विभाग में कार्यरत थे i अक्टूबर 1920 में इनका विवाह ब्रज किशोर प्रसाद की पुत्री प्रभावती देवी से हुआ. उनके विवाह के समय इनकी आयु 18 वर्ष की और प्रभावती देवी की आयु 14 वर्ष की थीi यह आयु इस समय विवाह के लिए आम मानी जाती थी i भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता जिन्हें 1970 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है। इन्दिरा गांधी को पदच्युत करने के लिये उन्होने 'सम्पूर्ण क्रांति' नामक आन्दोलन चलाया। वे समाज-सेवक थे, जिन्हें 'लोकनायक' के नाम से भी जाना जाता है। 1999 में उन्हें मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मनित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें समाजसेवा के लिए १९६५ में मैगससे पुरस्कार प्रदान किया गया था। पटना के हवाई अड्डे का नाम उनके नाम पर रखा गया है। दिल्ली सरकार का सबसे बड़ा अस्पताल 'लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल' भी उनके नाम पर है। इनकी मृत्यु 8 अक्टूबर 1979 में इनके जन्मदिन के ठीक तीन दिन पहले हुई. इनकी मृत्यु का मुख्य कारण डायबिटीज और ह्रदय सम्बंधित विकार थे. इस समय इनकी आयु 77 वर्ष की थी.
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति जो भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से थे जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रमुख भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में भी अपना योगदान दिया था। राष्ट्रपति होने के अतिरिक्त उन्होंने स्वाधीन भारत में केन्द्रीय मन्त्री के रूप में भी कुछ समय के लिए काम किया था। पूरे देश में अत्यन्त लोकप्रिय होने के कारण उन्हें राजेन्द्र बाबू या देशरत्न कहकर पुकारा जाता था। राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 3 दिसम्बर १८८४ को एक कायस्थ परिवार हुआ उनके पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से बिहार के जिला सारण (अब सीवान) के एक गाँव जीरादेई में जा बसे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूँकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे। उनके चाचा के चूँकि कोई संतान नहीं थी इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भाँति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था। बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते थे। उठते ही माँ को भी जगा दिया करते और फिर उन्हें सोने ही नहीं देते थे। अतएव माँ भी उन्हें प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं। राजेन्द्र प्रसाद के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं।[2] पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी। लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में किया करते थे। अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई।