राजनीति में हकीम लुकमान - महेश श्रीवास्तव
श्री कैलाश सारंग के बारे में यदि मैं कहूं कि उन्हें यौवन की देहरी पार करते हुए मैंने बड़ा भाई मान लिया था और आज तक वैसा ही मानता हूं , किसी अनजान क्षण में मन की किसी परत पर बनी वह छाप आज भी उसी प्रकार बरकरार है तो शायद बिल्कुल गलत नहीं होगा । इस मान लेने या इस छाप के बनने और बने रहने पर कभी कोई प्रश्न मन में नहीं उठा । स्वयं के पत्रकार होने और उनके राजनीतिज्ञ होने के बावजूद सदैव रिश्ते मन के रहे , तर्क या विश्लेषण , स्वार्थ या लाभ - हानि के धागे कभी बीच में नहीं आए । नहीं आए या नहीं आ सके तो शायद इसलिए क्योंकि भावना के संबंधों में इस प्रकार के धागों की कोई जरूरत भी नहीं होती । जिन दिनों संपर्क काफी रहा उन दिनों भी और जब संपर्क क्षीण हो गया तब भी अनुभव के स्तर पर रिश्तों में कभी जंग नहीं लगी ।
मेरी ओर से रिश्तों में भावनात्मक गहराई शायद इस कारण रही क्योंकि 1960 के दशक के बिल्कुल प्रारंभिक समय में जब मैं अपने बड़े भाई श्री जगदीश श्रीवास्तव के साथ भोपाल के तलैया मोहल्ले के एक बहुत साधारण से कच्चे मकान में रहता था तब श्री कैलाश सारंग बहुधा मेरे बड़े भाई साहब के पास आते थे । घर में उनका प्रवेश बिल्कुल एक भाई की तरह होता और सीढ़न भरे कमरे की ठंडी फर्श पर छादली बिछाकर वे पूरी सहजता के साथ अधिकार पूर्वक रोटियां खाते थे । बड़ा भाई स्वीकार कर लिया जैसे अपने बड़े भाई श्री जगदीश को स्वीकृत किए हुए था । उस समय श्री सारंग शिक्षक थे और मेरे भाई भी शिक्षक होने के साथ साथ हिन्दी साहित्य में एम.ए. की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे , जो उन्होंने प्रथम स्थान और स्वर्ण पदक प्राप्त कर उत्तीर्ण की थी । श्री सारंग शिक्षक होने के साथ संघ के उद्द्भट स्वयं सेवक भी थे । दोनों मेरे बड़े भाई एक ज्ञान के क्षेत्र में तो दूसरा मैदान में अतुलनीय हैं , यह धारणा तब मेरे मन में गहरे समाई हुई थी ।
साठ के दशक के प्रारंभिक एक दो वर्षों के बाद एक लम्बा समय मुलाकातों की न्यूनता का रहा । मुलाकातों का सिलसिला सत्तर के दशक में फिर तब बढ़ा जब मेरे पांव पत्रकारिता की जमीन पर दृढ़ता से टिकने लगे और आरंग जी सोमवारा स्थित तत्कालीन जनसंघ कार्यालय के एक भाग में सपरिवार स्थापित हो गए । वे कार्यालय में ही नहीं पार्टी में भी स्थापित हो गए । उनके पास में पारिवारिक रूप से जाता था और उनसे सदैव एक बड़े भाई का स्नेह पाता था । जितना स्नेह उनसे प्राप्त होता था उससे अधिक भाभीजी से प्राप्त होता था । इतनी सौम्य , उदार , वात्सल्यपूर्ण और संघर्षशील महिलाएं संसार में कम ही मिलती हैं । तब मेरी मान्यता बनी थी कि सारंग जी की सफलताओं में प्रसून भाभी की कठिनाइयां सहकर भी उदार और सहज बने रहने की क्षमताओं का बहुत हाथ है । मैं उन्हें श्री सारंग का सौभाग्य और उनके जीवन की जागृत कुण्डली मानता था । तब चूंकि भोपाल मैं अकेला रहता था सारंग जी का स्नेह और प्रसून भाभी का वात्सल्य मुझे आंतरिक एकान्त का पारिवारिक आश्रय स्थल लगता था ।
सारंग जी के परिवार में जाना आना किसी पत्रकार का किसी राजनीतिज्ञ के यहां जाने जैसा कतई नहीं होता था किन्तु कार्यालय भवन राजनीति का निवास भी था अतः प्रदेश की राजनीति के शीर्ष पुरुषों से संपर्क को विश्वास की पकड़ वहीं प्राप्त हुई । भवन के ऊपरी माले पर श्री कुशाभाऊ ठाकरे और श्री प्यारेलाल खण्डेवाल भी रहते थे , उनमें भी मेरे प्रति अपनत्व और भरोसे का भाव पैदा हुआ और राजनीति की अनेक अन्तर्कथाओं से भी मैं परिचित हुआ किन्तु पत्रकार होते हुए भी , गोपनीयता की मर्यादाओं का मैंने सदैव ध्यान रखा और अज्ञेय को कभी उजागर नहीं किया । इससे आपसी भरोसे का बंधन और मजबूत हुआ । मेरे लेखन से प्रायः सभी नेता मुझे प्रभावित प्रतीत होते थे किन्तु सारंग जी की प्रशंसा में एक बड़े भाई को अनुभव होने वाले गौरव भाव को भी मैं अनुभव करता था । तब वे चरैवेति के सम्पादक भी थे और उनके आदेश से मैंने उसमें कुछ समय तक लिखा भी । लेखन और विचारों को लेकर कई बार तल्ख बहसें भी हुई । स्वीकार प्रायः छोटे को ही करना पड़ता था किन्तु कभी - कभी बड़े को भी , जब कोई उत्तर नहीं सूझता था तो वे अपने स्नेहपूर्ण उलाहने से बात समाप्त कर देते थे । “ तुम तो बड़े विद्वाना हो गए हो यार ” , अथवा “ बहुत बदमाश हो गए हो महेश ” जैसे वाक्यों के साथ ।
श्री सारंग राजनीति में सराबोर रहे और भारतीय जनता पार्टी में वे लुकमान हकीम की तरह माने जाते थे । संगठन के बिखरे हुए मोतियों को पिरोना हो अथवा नई माला बनाना हो , ठाकरे जी को अनेक बार उन्हें महत्वपूर्ण दायित्व देते हुए मैंने देखा , जिसका उन्होंने बखूबी निर्वाह भी किया । पार्टी का खजाना खाली होता तो श्री कैलाश जोशी के साथ उन्हें उगाही यात्रा करते हुए भी मैंने देखा । लम्बे समय तक वे जनसंघ और भाजपा में ' टू इन वन ' ही नहीं “ मेनी इन वन ” बने रहे । राज्यसभा की सदस्यता उनके राजनीतिक जीवन का एक उपलब्धिपूर्ण आयाम था।
श्री सारंग के साथ मेरे संबंध इतने समय तक रहे हैं कि यदि लिखता रहूं तो बात दूर तलक चले । कई बार लगातार संपर्क रहा तो बार कई कई दिनों तक संपर्क नहीं हुआ । मगर मन में उपस्थिति सदैव बनी रही अक्षुण्ण और अडिग । जिनके विषय में आप सोचते नहीं सिर्फ अनुभव करते हैं ऐसे रहे मेरे लिए वे । अपनत्व और प्रेम का शायद यही जादू है कि एक बार जिसकी जो छवि बन गई वह घटती बढ़ती नहीं है । हां , उनके व्यक्तित्व के सौम्य , अपनत्व और सरसता ने उस छवि का परिष्कार अवश्य किया । वे अलग अलग तरह से किन्तु एक साथ अपने और पराए , पक्ष और विपक्ष , अच्छे और बुरे सबके लिए अपने तरीके से धरोहर हैं । यह धरोहर शतायु हो , यह कामना सभी करते हैं ।
(लेखक दैनिक 'पीपुल्स समाचार 'के प्रधान संपादक हैं )